सोमवार, 7 नवंबर 2011

श्री मद्भागत्गीता में योग




स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ॥५- २७॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः॥५- २८॥
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बाहरी स्पर्शों को बाहर कर, अपनी दृष्टि को अन्दर की ओर भ्रुवों के
मध्य में लगाये, प्राण और अपान का नासिकाओं में एक सा बहाव कर,इन्द्रियों, मन और बुद्धि को नियमित कर, ऍसा मुनि जो मोक्ष प्राप्ति में ही लगा हुआ है,इच्छा, भय और क्रोध से मुक्त, वह सदा ही मुक्त है।
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥६- १०॥

योगी को एकान्त स्थान पर स्थित होकर सदा अपनी आत्मा को नियमित करना चाहिये।
एकान्त मे इच्छाओं और घर, धन आदि मान्सिक परिग्रहों से रहित हो अपने चित और आत्मा
को नियमित करता हुआ।
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्॥६- ११॥

उसे ऍसे आसन पर बैठना चाहिये जो साफ और पवित्र स्थान पर स्थित हो, स्थिर हो, और जो
ज़्यादा ऊँचा हो और ज़्यादा नीचा हो, और कपड़े, खाल या कुश नामक घास से बना हो।
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥६- १२॥

वहाँ अपने मन को एकाग्र कर, चित्त और इन्द्रीयों को अक्रिय कर, उसे आत्म शुद्धि के लिये
ध्यान योग का अभ्यास करना चाहिये।
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥६- १३॥

अपनी काया, सिर और गर्दन को एक सा सीधा धारण कर, अचल रखते हुऐ,स्थिर रह कर, अपनी नाक के आगे वाले भाग(दोनों भौंओ के बीच -कूटस्थ) की ओर एकाग्रता से देखते हुये,और किसी दिशा में नहीं देखना चाहिये।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥६- १४॥

प्रसन्न आत्मा, भय मुक्त, ब्रह्मचार्य के व्रत में स्थित, मन को संयमित कर,मुझ मे चित्त लगाये हुऐ, इस प्रकार युक्त हो मेरी ही परम चाह रखते हुऐ।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥६- १५॥

इस प्रकार योगी सदा अपने आप को नियमित करता हुआ, नियमित मन वाला,मुझ मे स्थित होने ने कारण परम शान्ति और निर्वाण प्राप्त करता है।
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति चैकान्तमनश्नतः।
चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥६- १६॥

हे अर्जुन, बहुत खाने वाला योग प्राप्त करता है, वह जो बहुत ही कम खाता है।
वह जो बहुत सोता है और वह जो जागता ही रहता है।
युक्ताहारविहारस्य  युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥६- १७॥

जो नियमित आहार लेता है और नियमित निर-आहार रहता है, नियमित ही कर्म करता है,नियमित ही सोता और जागता है, उसके लिये यह योगा दुखों का अन्त कर देने वाली हो जाती है।
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥६- १८॥

जब सवंयम ही उसका चित्त, बिना हलचल के और सभी कामनाओं से मुक्त, उसकी आत्मा
मे विराजमान रहता है, तब उसे युक्त कहा जाता है।
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥६- १९॥

जैसे एक दीपक वायु होने पर हिलता नहीं है, उसी प्रकार योग द्वारा नियमित किया हुआ
योगी का चित्त होता है।
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥६- २०॥

जब उस योगी का चित्त योग द्वारा विषयों से हट जाता है तब वह सवयं अपनी आत्मा को
सवयं अपनी आत्मा द्वारा देख तुष्ठ होता है।
सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः॥६- २१॥

वह अत्यन्त सुख जो इन्द्रियों से पार उसकी बुद्धि मे समाता है, उसे देख लेने के बाद
योगी उसी मे स्थित रहता है और सार से हिलता नहीं।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥६- २२॥

तब बड़े से बड़ा लाभ प्राप्त कर लेने पर भी वह उसे अधिक नहीं मानता, और ही,उस सुख में स्थित, वह भयानक से भयानक दुख से भी विचलित होता है।
तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥६- २३॥

दुख से जो जोड़ है उसके इस टुट जाने को ही योग का नाम दिया जाता है। निश्चय कर और पूरे मन से
इस योग मे जुटना चाहिये।
संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥६- २४॥

शुरू होने वालीं सभी कामनाओं को त्याग देने का संकल्प कर, मन से
सभी इन्द्रियों को हर ओर से रोक कर।
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा किंचिदपि चिन्तयेत्॥६- २५॥

धीरे धीरे बुद्धि की स्थिरता ग्ररण करते हुऐ मन को आत्म मे स्थित कर,कुछ भी नहीं सोचना चाहिये।
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६- २६॥
जब जब चंचल और अस्थिर मन किसी भी ओर जाये, तब तब उसे नियमित कर
अपने वश में कर लेना चाहिये।
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥६- २७॥
ऍसे प्रसन्न चित्त योगी को उत्तम सुख प्राप्त होता है जिसका रजो गुण शान्त हो चुका है,जो पाप मुक्त है और ब्रह्म मे समा चुका है।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते॥६- २८॥
अपनी आत्मा को सदा योग मे लगाये, पाप मुक्त हुआ योगी, आसानी से
ब्रह्म से स्पर्श होने का अत्यन्त सुख भोगता है।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥६- २९॥

योग से युक्त आत्मा, अपनी आत्मा को सभी जीवों में देखते हुऐ और सभी जीवों मे
अपनी आत्मा को देखते हुऐ हर जगह एक सा रहता है।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं मयि पश्यति।
तस्याहं प्रणश्यामि मे प्रणश्यति॥६- ३०॥

जो मुझे हर जगह देखता है और हर चीज़ को मुझ में देखता है,उसके लिये मैं कभी ओझल नहीं होता और ही वो मेरे लिये ओझल होता है।
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि योगी मयि वर्तते॥६- ३१॥

सभी भूतों में स्थित मुझे जो अन्नय भाव से स्थित हो कर भजता है, वह सब कुछ
करते हुऐ भी मुझ ही में रहता है।
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं योगी परमो मतः॥६- ३२॥

हे अर्जुन, जो सदा दूसरों के दुख सुख और अपने दुख सुख को एक सा देखता है,वही योगी सबसे परम है।
अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥६- ३३॥

हे मधुसूदन, जो आपने यह समता भरा योग बताया है, इसमें मैं
स्थिरता नहीं देख पा रहा हूँ, मन की चंचलता के कारण।
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥६- ३४॥

हे कृष्ण, मन तो चंचल, हलचल भरा, बलवान और दृढ होता है। उसे
रोक पाना तो मैं वैसे अत्यन्त कठिन मानता हूँ जैसे वायु को रोक पाना।
श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण गृह्यते॥६- ३५॥
बेशक, हे महाबाहो, चंचल मन को रोक पाना कठिन है, लेकिन हे
कौन्तेय, अभ्यास और वैराग्य से इसे काबू किया जा सकता है।


आपका
संजय कुमार मिश्र

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